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पुण्यतिथी विशेष-जानिए कैसे ध्यानचंद से ‘हॉकी के जादूगर’ बने ददा

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तीन दिसंबर यही वो तारीख है जब हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद हमें छोड़कर दुनिया से रुख़सत हो गए थे। 1974 में ध्यानचंद की मृत्यु के साथ ही भारतीय हॉकी के एक अध्याय का समापन हो गया था लेकिन अंतिम सांस लेने से पहले वह अपने पीछे एक ऐतिहासिक विरासत छोड़ गए थे। आज उनकी पुण्यतिथी के मौके पर हम आपको बताएंगे ददा के जीवन से जुड़े वो अनजान किस्से जो आम आदमी तक शायद ही कभी पहुंच पाए।

ऐसे ध्यानचंद से बने चांद

राजपूत परिवार में जन्म लेने के साथ ही ध्यानचंद के भविष्य को लेकर कई तरह की बातें सामने आने लगी थीं। कोई उन्हें उनके पिता की तरह उनसे ब्रिटिश सेना में शामिल होने की उम्मीद कर रहा था तो कोई उन्हें एक पहलवान की नजर से देखने लगा था। ब्रिटिश शासन के समय वह सेना में शामिल हुए। अपनी नौकरी के समय वह रात को लगातार वह पहरा देते थे और चांद को निहारते रहते थे। जब हॉकी की दुनिया में वह देश का प्रतिनिधित्व करने उतरे तो उनके साथी उन्हें उन्हीं आदतों की वजह से चांद कहकर पुकारने लगे और यही से उन्हें चांद नाम से जाना जाने लगा।

जिस हिटलर के आगे दुनिया झुकी, वह ददा के आगे झुका

जर्मन तानाशाह हिटलर और ध्यानचंद से जुड़ा एक वाक्या आज भी हर भारतीय को गौरवांवित कर देता है। दरअसल 1936 के ओलंपिक में भारत ने जर्मनी को हिटलर की मौजूदगी में 8-1 के विशाल अंतर से हराकर स्वर्ण पदक जीता था। तब हिटलर ध्यानचंद के खेल से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उस भारतीय जवान को जर्मनी की ओर से खेलने का न्योता दे दिया। तब हिटलर ने अपनी सेना में एक बड़े पद के साथ हॉकी टीम की कप्तानी का भी प्रस्ताव दिया था लेकिन ध्यानचंद ने हिटलर के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। हिटलर ने भी ध्यानचंद की इज्जत की।

हॉकी स्टिक में चुम्बक होने का था शक

ध्यानचंद की अगुआई में भारत ने लगातार तीन ओलंपिक (1928, 1932 और 1936) स्वर्ण पदक जीते। इस दौरान उन्होंने अनगिनत गोल किए। हॉकी स्टिक के साथ वह गजब की तेजी के साथ मैदान में आगे बढ़ते थे और ऐसा लगता था कि उनकी स्टिक में चुम्बक लगा हो। कहा जाता है कि विदेशी दौरे पर एक मुकाबले के दौरान ध्यानचंद इतने गोल मार रहे थे कि चुम्बक होने के शक में उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर देखी गई।

जन्म इलाहाबाद में लेकिन झांसी से लगाव

महारानी लक्ष्मीबाई के बाद झांसी शहर को सबसे ज्यादा सुर्खियां ध्यानचंद ने दिलाई। यूं तो उनका जन्म इलाहाबाद में हुआ था लेकिन वह झांसी में ही पले बढ़े और वहीं हॉकी की बारीकियां सीखी। इस शहर में उनकी एक विशाल प्रतिमा आज भी उनकी कामयाबियों की कहानी बयां करती है। पिता की नौकरी की वजह से ध्यानचंद के परिवार को एक-शहर से दूसरे शहर घूमते रहना पड़ता था लेकिन झांसी से उनका रिश्ता कुछ खास था। इसी शहर से उन्होंने अपनी ग्रेजुएशन पूरी की और आगे चलकर सेना में शामिल हुए। इस शहर से लगाव का ही नतीजा था कि उन्होंने अपने जीवन के आखिरी समय में इस शहर की ओर रुख किया और यहीं उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली।

कुश्ती से था खासा लगाव

ध्यानचंद को दूसरे खेलों में भी काफी दिलचस्पी रहती थी। वह जब भी समय मिलता था दूसरे खेलों का लुत्फ उठाने पहुंच जाते थे। खासतौर से कुश्ती से उन्हें खासा लगाव था। सेना में शामिल होने से पहले उन्होंने कभी कभी हॉकी स्टिक नहीं थामी थी लेकिन कुश्ती करने के लिए वह अक्सर जाया करते थे और अपने दोस्तों के साथ दो-दो हाथ किया करते थे।

एक कसर रह गई है अधूरी

खेलों में ध्यानचंद की अपार सफलताओं को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से नवाजा और उनके जन्म दिवस 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया लेकिन एक कसर अब तक अधूरी ही रह गई। सचिव तेंदुलकर खेलों में भारत रत्न हासिल करने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी हैं लेकिन देश के इस सर्वोच्च सम्मान पर ध्यानचंद का भी पूरा हक है। आज भी उनका परिवार इस उम्मीद में है कि सरकार कभी तो ददा की उपलब्धियों को समझकर उन्हें भारत रत्न करार देगी।