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455 बच्चों की जान बचाने वाले राहुल शर्मा की भूमिका पर क्यों उठ रहे हैं सवाल?

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अहमदाबाद: गुजरात में साल 2002 में हुए दंगे गोधरा कांड पर जस्टिस नानावटी-मेहता आयोग की रिपोर्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राहत मिल गई है. इस रिपोर्ट को आज गुजरात विधानसभा की शीतकालीन सत्र में पेश की गई. आयोग की रिपोर्ट में पीएम मोदी के साथ-साथ तत्कालीन मंत्री हरेन पांड्या, भरत बारोट और अशोक भट्ट को भी राहत दी गई है. लेकिन दंगों के दौरान मोदी सरकार पर सबसे ज्यादा सवाल खड़े करने वाले गुजरात के तीन आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा, संजीव भट्ट और आरबी श्रीकुमार की भूमिका पर सवाल उठाए हैं.

राहुल शर्मा की भूमिका पर क्यों उठ रहे हैं सवाल

आईआईटी कानपुर से शिक्षा हासिल करने वाले शर्मा 2002 में प्रभावी तरीके से दंगों पर नियंत्रण करने के कारण पहली बार चर्चा में आए थे. 1 मार्च 2002, सौराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी भावनगर में गोधरा दंगों की आंच पहुंच चुकी थी. शाम के करीब चार बजे करीब दो से तीन हजार लोगों की भीड़ काकोर नगर के मदरसे को घेर चुकी थी. मदरसे के चारो तरफ टायर के ढेर लगाकर आग लगा दी गई. आग की लपटें दो फीट तक ऊपर उछल रही थीं. आग और धुंवा के बीच से बच निकलने की कोई सूरत नहीं थी

मदरसे के भीतर थे 455 बेगुनाह लड़के जोकि तालीम लेने की गरज से यहां आए हुए थे. ये लोग अपने बचने की उम्मीद छोड़ चुके थे. कईयों ने डर के मारे कलमा पढ़ना शुरू कर दिया था. बाहर भीड़ पर खून सवार था. लेकिन सभी के सभी 455 लोग जिंदा बच गए. मदरसे में पढ़ने वाले बच्चे जब सारी उम्मीद छोड़ चुके थे इसी दौरान मसीहा बनकर आए राहुल शर्मा, आग के धुंआ और तेज लपट के बीच अपनी गाड़ी लेकर मदरसे के दरवाजे पर पहुंचने वाले राहुल ने पहले तो फायरिंग कर लोगों की भीड़ हटाया उसके बाद खुद बच्चों को एक ट्रक में डालकर खुद ट्रक चलाते हुए बच्चों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया.

यह पहली घटना थी जब राज्य में दंगाइयों को काबू में करने के लिए पुलिस की तरफ से गोली चलाई गई थी. जल्द ही भीड़ तितर-बितर हो गई और स्थिति पर काबू पा लिया गया.

राहुल शर्मा के इस बहादुरी भरे काम के लिए उस समय के केंद्रीय मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने खूब सराहना की. यहां तक की इस घटना का जिक्र आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में भी किया है. लेकिन गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री गोर्धन झडफिया उनके बारे में अलग राय रखते थे. झडफिया ने सिटी पुलिस के दफ्तर फोन करके निर्देश दिए कि जो लोग पुलिस फायरिंग में घायल हुए हैं उन पर मुकदमें ना कायम किए जाएं. पुलिस ने इस निर्देश को मानने से इंकार कर दिया. शर्मा को इस ‘बेअदबी’ के नतीजे भुगतना पड़ा और उनका तबादला कर दिया गया.

नई पोस्टिंग के तहत उन्हें डीसीपी (कंट्रोल रूम) के बतौर अहमदाबाद भेज दिया गया. यहां उन्होंने दंगे के आरोपी राजनेताओं के कॉल रिकॉर्ड निकाले और दंगों में राजनेताओं और दंगाइयों के बीच के गठजोड़ की बात सामने आई. दंगा को लेकर इस तरीके के खुलासे के बाद ओर भी ज्यादा सरकार की नजरों में आ गए और हर दिन नये नये तरीके से उन्हे परेशान किया जाना लगा जिसके बाद उन्होंने 2014 में स्वैच्छा से सेवा निवृत्ति ले ली. फिलहाल वो गुजरात हाईकोर्ट में वकालत कर रहे हैं. और लोगों को इंसाफ देने की कोशिश कर रहे हैं.