2000 में बिहार से अलग होकर नए राज्य के रूप में सामने आए झारखंड का राजनीतिक इतिहास ‘रोलर कोस्टर राइड’ सरीखा रहा है. अपने अस्तित्व में आने के 19 साल के अल्प समय में ही झारखंड ने 6 मुख्यमंत्री देखे हैं, जो अलग-अलग कालखंड में कुल दस बार मुख्यमंत्री पद संभाल चुके हैं. एक और अजब रिकॉर्ड झारखंड का रहा है और वह यह है कि अब तक किसी भी पार्टी ने राज्य में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार नहीं बनाई है. 26 फीसदी आदिवासी आबादी और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस राज्य में 19 सालों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया है. ऐसे में यह परंपरा 2019 में भी कायम है, जब किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला है. हालांकि रघुवर दास झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बन कर उभरे हैं. जिन्होंने पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया है. इससे पहले बाबू लाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधू कोड़ा, हेमंत सोरेन सीएम बन चुके हैं. 81 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में खंडित जनादेश से कभी भी राजनीतिक स्थिरता नहीं रही और सत्ता आती-जाती रही.
पिछले विधानसभा चुनाव यानी 2014 में बीजेपी को 37 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाली झाविमो ने भी खराब प्रदर्शन नहीं किया. यह अलग बात है कि राजनीतिक मौकापरस्ती के लिए ‘कुख्यात’ झारखंड में आठ सीटों पर जीत दर्ज करने वाली झाविमो के छह विधायक टूटकर बीजेपी में चले गए. झामुमो भी बेहतर प्रदर्शन करते हुए दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरा और पार्टी ने एक सीट की बढ़त बनाते हुए 19 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की. कांग्रेस महज 6 सीटों पर सिमट गई. अन्य को छह सीटें मिलीं.
2000 जब से बिहार से झारखंड अलग हुआ है यहां कि सियासत में इसी तरीके के कई बड़े उलट फेर हो चुके हैं. इतना ही नहीं यहां की सियासत को अवसरवाद की सियासत भी कहा जाता है. महज एक से डेढ़ माह में क्या कुछ नहीं देखा यहां की राजनीति ने साथ चलने वाले दोस्त आमने-सामने आकर ताल ठोकने लगे. दल बदलने का ऐसा ट्रेंड चला कि भगवा झंडा ढोने वाला शख्स कांग्रेस में और कांग्रेस की दशकों तक राजनीति करने वाला भाजपा में. सबकुछ बेहतर संभावना की आस में. दलों के नारे तक दब गए चुनावी शोर में, रोटी, कपड़ा, मकान की बात तो छोड़िए. यहां पर अमित शाह ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि अयोध्या में अगले चार महीने में आसमान छूता राममंदिर दिखाई देगा. लेकिन लगता है कि इस बार झारखंड के लोगों ने संवेदनशील और राष्ट्रीय मुद्दों से बिल्कुल हटकर अपने स्थानिक मुद्दे छाए रहे. और शायद सत्ता परिवर्तन के पीछे की सबसे बड़ी वजह यही रही है.