वरिष्ठ IAS अधिकारी और गुजरात की प्रमुख स्वास्थ्य सचिव जयंती रवि कोरोना के खिलाफ गुजरात की लड़ाई का चेहरा रही हैं. हालांकि राज्य में कोरोना संक्रमण की रफ्तार को रोकोने में विफल रहने के बाद वह गुजरात में नेताओं की लोकप्रियता सूची से गिर गई हैं. हालांकि, जयंती रवि के दरकिनार होने का वास्तविक कारण कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी के साथ उनकी पुरानी निकटता को माना जा रहा है. उन्होंने यूपीए-1 के दौरान 2004 से 2007 के बीच तीन साल तक सोनिया गांधी के करीबी सहयोगी के रूप में काम किया था.
ये शुरू हुई कहानी
1991 बैच की आईएएस अधिकारी जयंती रवि पहली बार साल 2002 में गोधरा ट्रेन कांड के दौरान सुर्खियों में आई थीं. तब वह पंचमहल की कलेक्टर थीं. उस समय विश्व हिंदू परिषद (VHP) और बजरंग दल सहित भाजपा से जुड़े लोग उनसे बहुत नाखुश थे और उनका पंचमहलों से तबादला कर दिया गया था. तब इसकी व्यापक रूप से चर्चा हुई थी कि 2002 के सांप्रदायिक दंगों से निपटने के तरीके के कारण वह नरेंद्र मोदी की विश्वास पात्र लोगों में शामिल नहीं थीं.
2004 में जब यूपीए सत्ता में आई तब सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनीं, लेकिन एक समानांतर निकाय को एक वास्तविक शक्ति केंद्र के रूप में काम करने के लिए बनाया गया था जिसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के रूप में जाना गया था. डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और सोनिया गांधी एनएसी की अध्यक्षता बनीं. एनएसी सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार का मार्गदर्शन करता था और जयंती रवि को एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी के रूप में एनएसी में शामिल किया गया था.
जयंती रवि उन दिनों सोनिया गांधी के साथ मिलकर काम करती थीं. सूचना का अधिकार (आरटीआई), नरेगा और विवादास्पद सांप्रदायिक हिंसा विधेयक सहित प्रमुख सुधार कानूनों को बनाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
गुजरात लौटने के बाद भी उन्हें कभी भी राजनीतिक रूप से भाजपा के करीब नहीं माना गया. हालांकि, उन्होंने गांधीनगर में दक्षिण भारतीय लॉबी में शामिल होकर वर्तमान शासन के शुभचिंतकों में अपना नाम लाने का प्रयास किया और थोड़ी सफल भी रहीं. लेकिन गुजरात में कोरोना संकट को नियंत्रित करने में उनकी हालिया असफलता के बाद फिर से उनकी छवि धूमिल हो गई है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो दो दशकों से गांधीनगर, गुजरात की नौकरशाही और राजनीति को करीब से देख रहै हैं)
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