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#Column: अगर भूपेंद्र सिंह ने आला कमान की बात सुनी होती, तो क्या वे पछतावा से बच सकते थे ?

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गुजरात के शिक्षा मंत्री और मंत्रिमंडल में सबसे वरिष्ठ नेताओं में से एक भूपेंद्र सिंह चूडासमा अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी शर्मिंदगी का सामना कर रहे हैं. गुजरात उच्च न्यायालय ने उनके विधान सभा चुनाव को अयोग्य करार दे दिया है. साथ हा अदालत ने यह भी पाया है कि उन्होंने अपने पक्ष में चुनाव कराने के लिए धांधली की और भ्रष्टाचार का सहारा लिया.

लेकिन क्या उन्होंने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जो भाजपा के आला कमान ने उन्हें ढाई साल पहले दिया था, तो आज वे इस स्थित में खड़ा नहीं होते और शर्मिंदगी से बच सकते थे.
ये सब कुछ ऐसे वक्त में हुआ है जब पार्टी विधान सभा चुनाव के लिए गुजरात की सभी 182 सीटों के लिए उम्मीदवारों को छांटने का काम कर रही थी. इससे बीजेपी की एक आंतरिक रिपोर्ट ने स्पष्ट संकेत दिया है कि अहमदाबाद जिले में ढोलका सीट पर बहुत ही मुश्किल लड़ाई होने वाली थी. चूंकि भूपेंद्र सिंह पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से एक थे और विभिन्न संकटों के दौरान कई वरिष्ठ नेताओं की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे थे, इसलिए पार्टी उन्हें सहज तरीके से विधान सभा लाना चाहती थी.

ऐसे में आंतरिक रिपोर्ट का विश्लेषण करने के बाद पार्टी ने भूपेंद्र सिंह को अहमदाबाद शहर में स्थानांतरित करने का मौका दिया. पार्टी ने भूपेंद्र सिंह को अहमदाबाद शहर की वेजलपुर सीट से चुनाव लड़ने का सुझाव दिया और यह सीट ढोलका के करीब भी थी. वेजलपुर को गुजरात में भाजपा के लिए सबसे सुरक्षित सीटों में से एक माना जाता है.

लेकिन ढोलका विधान सभा क्षेत्र के साथ भूपेंद्र सिंह के लंबे जुड़ाव और उस क्षेत्र में उनके कई संस्थानों की मौजूदगी को देखते हुए उन्होंने ढोलका से चुनाव लड़ना पसंद किया. कुछ अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि उन्हें इस बात का डर था कि अगर बीजेपी की ओर से किसी और उम्मीदवार को टिकट देकर उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा गया, तो चूडासमा की निष्ठा को चुनौती देने के लिए इस क्षेत्र में एक और नेता तैयार हो जाएगा. इसलिए, उन्होंने आला कमान को आश्वस्त किया कि वह निर्वाचन क्षेत्र जीतने के लिए प्रबंधन करेंगे.

अब गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश के बाद न केवल उनके लिए बल्कि पार्टी के लिए भी शर्मिंदगी पैदा कर दी है. भूपेंद्र सिंह के कई करीबी सहयोगियों को लगता है कि कमजोर सीटों से चुनाव लड़ने  के लिए पार्टी नेताओं के प्रस्ताव को अस्वीकार करना एक बुद्धिमानी पूर्वक लिया गया फैसला नहीं था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो दो दशकों से गांधीनगर, गुजरात की नौकरशाही और राजनीति को करीब से देख रहै हैं)

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