दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत कई सवाल खड़े करती है, कई मामलों में देश को आश्वस्त करती है और कई नए समीकरणों की ओर संकेत देती है, जिसके दूरगामी नतीजे हो सकते हैं. इन नतीजों से बीजेपी को अपनी रणनीति बदलने का अल्टीमेटम मिलता है तो वहीं विपक्ष को भी एकजुट होने की सलाह. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि 2014 में जिन प्रशांत किशोर ने मोदी को विकास पुरुष का तमगा देकर कांग्रेस को कठमुल्ला बना दिया था. भाजपा भी अब घर के भेदी बने प्रशांत किशोर के जालों में उलझकर विकास के तमगे को उतार दिया है और हिन्दुत्व के ध्रवीकरण में उलझ गई है. बीजेपी की पहचान दिन ब दिन एक रानीतिक दल से हटते हुए मठ में परिवर्तित हो रही है. वहीं 2012 वाले मोदी की राह पर प्रशांत ने केजरीवाल को खड़ा कर दिया है.
प्रशांत किशोर की चाल
एक समय था जब अरविंद केजरीवाल को लेकर प्रशांत किशोर के मन में थोड़ी खटास आ गई थी. पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान किशोर की टीम ने एक क्लायंट के तौर पर अरविंद केजरीवाल से संपर्क किया था. लेकिन केजरीवाल सेवा लेने की जरूरत से इनकार कर दिया था. उसके बाद किशोर की डील कांग्रेस से हुई और आप को हराना किशोर के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था. दिल्ली में आम आदमी पार्टी का चुनाव प्रचार संभालने की डील होने के बााद प्रशांत किशोर की Indian Political Action Committee (IPAC) ने सबसे पहले ग्राउंड सर्वे किया और केजरीवाल की पॉलिटिकल स्ट्रैटजी की स्टडी की. केजरीवाल को पहली सलाह दी गई कि वह बीजेपी या नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमले करने के बजाय अपनी सरकार के काम गिनाएं. केंद्र ने यह नहीं करने दिया, वह नहीं करने दिया, रोड़े अटका देने के बजाय केजरीवाल के भाषण, इंटरव्यू इस बात पर केंद्रित होने लगे कि हमने इतने स्कूल खोले, स्कूलों का कायाकल्प किया, मोहल्ला क्लीनिक बनाए, सड़क दुर्घटना में घायलों का मुफ्त इलाज करवाया…आदि.
चरित्र
केजरीवाल ने जनता के सेवक के रूप में अपना प्रचार किया और हर सभा में वे पार्टी को दिल्ली की अपनी पार्टी के रूप में पेश करते रहे जिसका सरोकार देश की राजधानी तक सीमित था, जो पूरे दम खम से राजधानी की सेवा में जुटी थी. पार्टी का प्रचार बार-बार यही रहा कि दिल्ली के लिए आप को चुना जाए, जैसे देश के लिए जनता ने लोकसभा में मोदी और भाजपा को चुना था. आप ने राजनीति में हड़बड़ी न करने की सिख पिछले लोकसभा से सीखी थी केजरीवाल 2014 में मोदी के खिलाफ बनारस चुनाव लड़ने पहुंच गए थे और देश भर में पार्टी अपनी पहचान और पहुंच बनाने की कोशिश की और बुरी तरह विफल रही. उससे सीख कर केजरीवाल ने अपना ध्येय भी तय किया और अति महत्वाकांक्षा पर लगाम लगाई.
विपक्ष के पास सीएम का चेहरा नहीं
आम आदमी पार्टी की तरफ से साफ था कि चेहरा अरविंद केजरीवाल ही हैं. पार्टी लगातार विपक्ष से पूछती रही कि चेहरा कौन है, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने ही अपने सीएम पद के दावेदार का ऐलान नहीं किया. बीजेपी अपने दिल्ली अध्यक्ष मनोज तिवारी को प्रमोट तो करती रही, लेकिन कभी ऐसा ऐलान नहीं किया गया कि वो सीएम पद के उम्मीदवार हैं. कांग्रेस की तरफ से तो कोई चेहरा ही सामने नहीं आया. ऐसे में ये आम आदमी पार्टी के लिए सीधी बढ़त रही, केजरीवाल हर पोस्टर, हर कैंपेन में नजर आए और उन्होंने खुद ही पूरे कैंपेन को लीड किया.
सरकारी योजना का दिया खुले मन से लाभ
मुफ्त बिजली, पानी, बस की चर्चा दिल्ली ही नहीं पूरे देश में रही. दिल्ली के निचले तबके के लोगों को इससे बड़ी राहत मिली. फिर महिलाओं की मुफ्त यात्रा शुरू करना भी केजरीवाल के लिए तुरुप का इक्का साबित हुआ. जहां तक बिजली का सवाल है – दिल्ली की सरकार ने बिजली के रेट को बढ़ा दिया और फिर कुछ यूनिट सस्ती कर दी. यानि कुछ लोगों से बढ़े बिजली दामों पर मोटी रकम हासिल की और गरीब तबके के कुछ लोगों तक मुफ्त बिजली पहुंचाई. भाजपा इसे मुद्दा नहीं बना पाई ये उसकी कमजोरी रही. मुफ्त की इस राजनीति के खिलाफ बोलना मुश्किल रहा तो वो दिल्ली की जनता को कुछ नया मुफ्त देने का वादा भी नहीं कर पाई. हालांकि, चुनाव की हार के बाद भाजपा के नेता दिल्ली की जनता को मुफ्त खोर बता रहे हैं. और सुधीर चौधरी के नक्शेकदम पर चलते हुए दिल्ली के मतदाता को लालची बता रहे हैं.
सांप्रदायिक सियासत से दूरी
भाजपा ने चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में ध्रुवीकरण की भरपूर कोशिश की और खुद के ही विकास के एजेंडे पर न चल शाहीन बाग के बहाने ध्रुवीकरण करने की कोशिश की. प्रचार शाहीन बाग बनाम राष्ट्रवाद करने की कोशिश की गई. लगातार हर सभा में बीजेपी नेताओं ने मुसलमान विरोधी बात की और आप पर तुष्टीकरण का आरोप लगाया. लेकिन केजरीवाल ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मोहल्ला क्लिनिक आदि की चर्चा करते रहे. केजरीवाल की पार्टी की तरफ से सांप्रदायिक बयान बाजी ना करना भी आम आदमी पार्टी के लिए काफी मुफीद रहा. साथ ही आम आदमी पार्टी ने बीजेपी के नेताओं द्वारा केजरीवाल को नक्सल और ‘आतंकवादी’ कहे जाने को भी खूब भुनाया. और वोटरों में ये मैसेज देने की कोशिश की गई कि जहां आप पर वोट मांग रही है वहीं बीजेपी काम करने वाले को आतंकवादी कह रही है.